नई दिल्ली – 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद एक बार फिर से यह मुद्दा चर्चा में है कि भारत ने गुजरात के कच्छ के रण का 828 वर्ग किलोमीटर हिस्सा पाकिस्तान को सौंप दिया था। कई राजनीतिक बयानबाज़ी और सोशल मीडिया पोस्ट्स में यह कहा गया है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संसद के विरोध के बावजूद पाकिस्तान को भारतीय ज़मीन सौंप दी। लेकिन क्या यह सच है?
क्या हुआ था 1965 के युद्ध के बाद?
1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच सीमित युद्ध हुआ, जिसमें भारत ने सैन्य रूप से बढ़त बनाई। लेकिन उससे पहले अप्रैल 1965 में कच्छ के रण (Rann of Kutch) में दोनों देशों की सेनाओं के बीच झड़पें हुई थीं। इस क्षेत्र में सीमा को लेकर विवाद था, जिसे “कच्छ का विवाद” कहा जाता है।
भारत और पाकिस्तान ने यह विवाद अंतरराष्ट्रीय पंचाट में ले जाने पर सहमति जताई, न कि संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था में। मध्यस्थता के लिए जिनेवा समझौता हुआ, जिसे ब्रिटेन की सहमति से लाया गया। इस अंतरराष्ट्रीय पंचाट में एक त्रिपक्षीय न्यायाधिकरण बनाया गया, जिसमें भारत, पाकिस्तान और तटस्थ सदस्य (यूगोस्लाविया के न्यायाधीश अली बाबर) शामिल थे।
निर्णय और भारत का जवाब
1968 में इस पंचाट ने फैसला सुनाया कि विवादित 9,100 वर्ग किमी क्षेत्र में से 90% हिस्सा भारत का रहेगा और लगभग 10% यानी लगभग 850 वर्ग किमी पाकिस्तान को मिलेगा। भारत ने इस निर्णय को कूटनीतिक जीत के रूप में देखा, क्योंकि पाकिस्तान की मांग इससे कहीं अधिक थी।
संसद का विरोध और इंदिरा गांधी की भूमिका
संसद में कुछ विपक्षी दलों ने फैसले की आलोचना की थी, लेकिन यह कहना गलत है कि पूरा संसद विरोध में था। यह भी तथ्य है कि यह निर्णय भारत और पाकिस्तान दोनों की सहमति से मध्यस्थता के ज़रिए हुआ था, न कि इंदिरा गांधी की व्यक्तिगत मंशा से।
राजनीतिक दावे बनाम ऐतिहासिक तथ्य
कई बार यह कहा जाता है कि इंदिरा गांधी ने ‘डर के मारे जमीन नीलाम कर दी’, लेकिन 1965 के युद्ध में भारत की निर्णायक बढ़त और अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की स्थिति को देखते हुए यह दावा आधारहीन प्रतीत होता है। भारत ने युद्ध के बाद कई क्षेत्रों पर कब्ज़ा किया था, जिन्हें ताशकंद समझौते (1966) के तहत वापस किया गया, लेकिन कच्छ विवाद इससे अलग कानूनी प्रक्रिया से जुड़ा था।
कच्छ के रण का विवाद एक जटिल कानूनी और भौगोलिक मुद्दा था, जिसे भारत ने शांतिपूर्ण तरीके से हल किया। पाकिस्तान को जो क्षेत्र मिला, वह विवादित था और पंचाट के निर्णय का हिस्सा था। इसे देशद्रोह या व्यक्तिगत कमजोरी कहना ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करना है।